💬Thought for the Day💬

"🍃🌾🌾 "Your competitors can copy your Work, Style & Procedure. But No one can copy your Passion, Sincerity & Honesty. If you hold on to them firmly, The world is yours..!! Follow your Principles." 🍃💫🍃💫🍃💫🍃💫🍃💫🍃

Prayas

                                                             

Year - 2                            Month - September 2022                Issue - 34 

प्यारे बच्चों,

क्या हुआ,

मिल गया धोखा अब मिल गयी शान्ति जिस चीज़ के लिए, जिस इंसान के लिए अपनी पढाई, लिखायी अपनी सारी मेनहत माँ-बाप, भाई-बहन सब कुछ त्याग दिए. उसी इंसान ने तुम्हारी ज़िंदगी को बर्बाद कर दिया शुरु-शुरु में बहुत सपने देखे की साथ मिलकर ये करंगे वो करेंगे ऐसा कर डालेंगे वैसा कर डालेंगे लेकिन अब क्या हुआ वो सारे सपने, कहाँ गए वो सारे दोस्त.

ज़िन्दगी में हमेसा एक बात याद रखना यदि तुम अपने लक्ष्य को प्यार करोगे तो ये पूरी दुनिया तुमसे प्यार करेगी लेकिन तुम मूर्खो की तरह एक इंसान के चक्कर में पड़कर अपने लक्ष्य को भूल जाओगे उसके लिए मेनहत करना भूल जाओगे तो फिर वो तुम्हे अपनी औकात याद दिलाएगा.

बहुत प्रेम किया था न तुमने उससे बहुत इज्जत दी थी न तुमने उसको अब कहाँ क्या वो प्रेम अब कहाँ गयी वो इज्जत यदि वो प्रेम वो इज्जत अपने लक्ष्य को दी होती ना तो आज पूरी दुनिया तुम्हारे पीछे भाग रही होती.

लेकिन किसी के कितने समझाने के बाद भी तुम कहा समझ पाए तुम अपनी मूर्खता में लगे रहे और सिर्फ वही काम करते रहे जो तुम्हे अच्छा लग रहा था.

लेकिन जो सच था आज तुम्हारे सामने है और तुम परेशान हो रहे हो, चीख रहे हो, चिल्ला रहे हो, रो रहे हो, टेंसन ले रहे हो, की अब हमारी ज़िंदगी का क्या होगा अरे चीखने चिल्लाने परेशान होने से किसी की ज़िंदगी में कुछ नहीं बदलता यदि बदलता है तो वो बदलता है अपने फैसलों से आपसे जो गलतियां हुयी है उनको सुधारने के फैसलों से.

लेकिन आज के बाद यदि फिर से वही गलतियां करते रहोगे फिर वही मूर्खता करते रहोगे तो आपकी ज़िंदगी में फिर से वही समय आने वाला है जो आज आया है और आप अपने पूरी ज़िंदगी को इन्ही चक्क्रों में पड़कर बर्बाद कर लोगे.

आज तुम्हारे पास दो रास्ते है या तो उसी रास्ते पे वापस जाओ जहा तुम्हारी ज़िंदगी बिगड़ने वाली है और अभी तक बिगड़ चुकी है, और दूसरा रास्ता तुम्हे ले जाता है अपनी मंजिल की ओर वो मंजिल जहां तुम खुद अपने आप को देखना चाहते हो तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा समाज तुम्हरे भाई-बहन सभी तुम्हे वहां पंहुचा हुआ देखना चाहते है लेकिन तुम खुद उसे बर्बाद कर रहे हो.

यही वो समय है जब तुम अपनी ज़िंदगी को बदल सकते हो और फैसला ले सकते हो एक फैसला जो तुम्हारी पूरी को पूरी ज़िंदगी बदल कर रख देगा और नहीं तो वापस मुड़ जाओ उसी रास्ते पर, उस कीचड़ में, उस दलदल में जहां से फंस के ज़िंदगी का कोई भी इंसान वापस नहीं निकल पाया.

अरे सोच क्या रहे हो,

उस बत्तर सी ज़िंदगी से निकलो अपने आप को निकालो ये टेंशन लेना बंद करो ये सोचना और समझना बंद करो और अपनी काम की ओर अपनी लक्ष्य की ओर ध्यान लगाओ मेनहत करो और अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ो.

आज के बाद उसे याद करने की जरूरत नहीं है जिसने तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद कर दी बल्कि उसे दिखाने की जरूरत है की तुम बर्बाद नहीं हुए हो.

वो जो सोच भी नहीं सकते तुम उसे करने के लिए तैयार हो चुके हो, और वो तुम अब बन के दिखाओगे वो कर के दिखाओगे जो ये दुनिया सोच भी नहीं सकती,

तो अब उठो,

अपने आपको इन सारे के सारे चक्करो से निकालो और पढाई करने के लिए बैठ जाओ तो किसी भी चीज़ के लिए रोना-धोना बंद करो, टेंशन लेना बंद करो और पढाई में अपना पूरा ध्यान लगाओ.

धन्यवाद

तुम्हारा  पथ-प्रदर्शक 

धर्मेन्द्र कुमार 

पुस्त्कायाध्यक्ष 

The Knowledge Library

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आओ कुछ विचार करें

 दोस्ती-दुश्मनी और मान-अपमान

  न जाने कितनी पुरानी बात है कि न जाने किस राज्य में वीर नाम का एक युवक रहता था। एक बार वीर को दूसरे राज्य में किसी काम से जाना पड़ा और दुर्भाग्य से वीर वहाँ एक झूठे अपराध में फँस गया। गवाहों की ग़ैर मौजूदगी के कारण राजा ने उसे फाँसी का हुक़्म सुना दिया और मुनादी करवा दी गई-
"हर ख़ास-ओ-आम को सूचित किया जाता है कि अपराधी वीर को ठीक एक महीने बाद...याने पूर्णमासी के दिन... हमारे राज्य की प्रथा के अनुसार... प्रजा के सामने... सार्वजनिक रूप से फाँसी पर लटकाया जाएगा।"

जेल में बंद वीर बहुत परेशान था। उसे परेशान देखकर पहरेदार ने कहा-

"फाँसी की सज़ा से तुम परेशान हो गए हो। अब मरना तो है ही... आराम से खाओ-पीओ और मस्त रहो"
"मुझे अपने मरने की चिन्ता नहीं है। मेरी परेशानी कुछ और है... क्या मुझे जेल से कुछ दिन की छुट्टी मिल सकती है ?"
"जेल से छुट्टी ? ये कोई नौकरी है क्या, जो छुट्टी मिल जाएगी?... लेकिन बात क्या है, कहाँ जाना है तुम्हें छुट्टी लेकर ?"
"मेरी माँ अन्धी है और घर पर अकेली है। मुझे उसके शेष जीवन का पूरा प्रबंध करने के लिए जाना है जिससे मेरे मरने के बाद उसे कोई कष्ट न हो। उसका सारा प्रबंध करके मैं एक महीने के भीतर ही लौट आऊँगा।... क्या कोई तरीक़ा... क्या कोई क़ानून ऐसा नहीं है कि मुझे कुछ दिनों की छुट्टी मिल जाय ?"
"देखो भाई ! तुम पढ़े-लिखे और सज्जन आदमी मालूम होते हो... तुम्हारी समस्या को मैं राज्य के मंत्री तक पहुँचवा दूँगा... बस इतना ही मैं तुम्हारे लिए कर सकता हूँ।"
        अगले दिन पहरेदार ने बताया-
"सिर्फ़ एक तरीक़ा है कि तुम छुट्टी जा सको...?"
"वो क्या ?"
"अगर तुम्हारी जगह कोई और यहाँ जेल में बन्द हो जाय... जिससे कि अगर तुम नहीं लौटे तो तुम्हारी जगह उसे फाँसी दे दी जाय...सिर्फ़ यही तरीक़ा है... लेकिन कभी ऐसा हुआ नहीं है क्योंकि कोई भी किसी की फाँसी की ज़मानत थोड़े ही देता है।"
"आप मेरे गाँव से मेरे दोस्त धीर को बुलवा दीजिए... मेहरबानी करके जल्दी उसे बुलवा दें"
"पागल हो क्या ! कोई दोस्त-वोस्त नहीं होता ऐसे मौक़े के लिए..."
"आप उसे ख़बर तो करवाइए..."
        वीर और धीर की दोस्ती सारे इलाक़े में मशहूर थी। लोग उनकी दोस्ती की क़समें खाया करते थे। जैसे ही धीर को ख़बर मिली वो भागा-भागा आया और वीर को जेल से छुट्टी मिल गई।
        धीरे-धीरे दिन गुज़रने लगे, वीर नहीं लौटा और न ही उसकी कोई ख़बर आई। धीर के चेहरे पर कोई चिन्ता के भाव नहीं थे बल्कि वह तो रोज़ाना ख़ूब कसरत करता और जमकर खाना खाता। पहरेदार उससे कहते कि वीर अब वापस नहीं आएगा तो धीर हँसकर टाल जाता। इस तरह फाँसी में केवल एक दिन शेष रह गया, तब सभी ने धीर को समझाया कि उसे मूर्ख बनाया गया है।

"आप लोग नहीं जानते वीर को... यदि वह जीवित है तो निश्चित लौटेगा... चाहे सूर्य पूरब के बजाय पच्छिम से उगे... लेकिन वीर अवश्य लौटेगा। एक बात और है, जिसका पता आप लोगों को नहीं है। मैंने उसे यह कहकर भेजा है कि वह कभी वापस न लौटे और मुझे ही फाँसी लगने दे... मगर मैं जानता हूँ उसे, वो नालायक़ ज़रूर लौटेगा, मेरी बात मानेगा ही नहीं !"
        जब सबने यह सुना कि ख़ुद धीर ने ही वीर से लौटने के लिए मना कर दिया है तो राजा को सूचना दे दी गई।
पूर्णमासी आ गई और फाँसी का दिन भी...। अपार भीड़ एकत्र हो गई, इस विचित्र फाँसी को देखने के लिए। जिसमें किसी के बदले में कोई और फाँसी पर चढ़ रहा था। स्वयं राजा भी वहाँ उपस्थित था। फाँसी लगने ही वाली थी कि वहाँ वीर पहुँच गया।
"रोकिए फाँसी ! फाँसी तो मुझको दी जानी है... मैं आ गया हूँ अब... मुझे दीजिए फाँसी" - वीर बोला,
"नहीं ये समय पर नहीं लौट पाया है, इसलिए फाँसी तो अब मुझे लगेगी... मुझे !" धीर चिल्लाया,
        इस तरह दोनों झगड़ने लगे। जनता के साथ-साथ राजा को भी बहुत आश्चर्य हो रहा था कि ये दोनों दोस्त फाँसी पर चढ़ने के लिए लड़-झगड़ रहे हैं ?
"लेकिन तुम इतनी देर से क्यों लौटे ?" राजा ने पूछा।
"महाराज ! मैंने तो अपनी माँ के लिए सारा इन्तज़ाम एक सप्ताह में ही कर दिया था और उसे समझा भी दिया था कि अब उसका ध्यान धीर ही रखेगा। जब मैं वापस लौट रहा था तो लुटेरों से मेरी मुठभेड़ हो गई। मैं 15 दिन घायल और बेसुध पड़ा रहा। जैसे ही मुझे होश आया, मैं भागा-भागा यहाँ आया हूँ।"
राजा ने कहा "अब तो तुम दोनों को ही सज़ा दी जाएगी... लेकिन वो फाँसी नहीं बल्कि हमारे राजदरबार में नौकरी करने की सज़ा होगी... तुम दोनों बेमिसाल दोस्त हो और ईमानदार भी... आज से तुम दोनों हमारे राजदरबार की शोभा बढ़ाओगे"

        ये तो थी मित्रता की एक पुरानी कहानी, मित्रता और शत्रुता का आपसी रिश्ता बहुत गहरा है। मित्रता, बराबर वालों में होती है और इस 'बराबर' का संबंध पैसे की बराबरी से नहीं है, यह बराबरी किसी और ही धरातल पर होती है। इसी कारण हमारे 'स्तर' की पहचान हमारे दोस्तों से होती है। यही बात शत्रुता पर भी लागू होती है। हमारे शत्रु जिस स्तर के हैं, हमारा भी स्तर वही होता है।
        यूनान के सम्राट सिकंदर से किसी ने कहा-
"आपके बारे में सुना है कि आप बहुत तेज़ दौड़ सकते हैं। किसी दौड़ में आप हिस्सा क्यों नहीं लेते ?"
"जब सम्राटों की दौड़ होगी तो सिकंदर भी दौड़ेगा।" सिकंदर का उत्तर था।
        इसी तरह 'नेपोलियन बोनापार्ट' से एक पहलवान ने कहा-
"आपकी बहादुरी मशहूर है, मुझसे कुश्ती लड़कर मुझे हरा कर दिखाइए !"
"तुमसे मेरा अंगरक्षक लड़ेगा... जो तुमसे दोगुना ताक़तवर है। उसके सामने तुम एक मिनिट भी नहीं टिक पाओगे। मुझे अपनी बहादुरी के लिए 'तुम्हारे' प्रमाणपत्र की नहीं बल्कि यूरोप की जनता के विश्वास की ज़रूरत है।"
        मित्रता का कोई 'प्रकार' नहीं होता कि इस प्रकार की मित्रता या उस प्रकार की, जबकि शत्रुता के बहुत सारे 'प्रकार' हैं। जैसे- राजनीतिक शत्रुता, व्यापारिक शत्रुता, ईर्ष्या-जन्य शत्रुता आदि कई तरह की शत्रुता हो सकती हैं। शत्रुता के बारे में यह भी कहा जा सकता है कि शत्रुता कम हो गई या बढ़ गई। मित्रता कम या अधिक नहीं होती, या तो होती है या नहीं होती। जब हम यह कहते हैं "उससे हमारी उतनी दोस्ती अब नहीं रही..." तो हम सही नहीं कह रहे होते। वास्तव में दोस्ती समाप्त हो चुकी होती है। इसी तरह 'गहरी मित्रता' जैसी कोई स्थिति नहीं होती। दोस्ती और दुश्मनी में एक फ़र्क़ यह भी होता कि दोस्ती 'हो' जाती है और दुश्मनी 'की' जाती है।
        मित्रता और शत्रुता के संबंध में गीता क्या कहती है ?
गीता में दो श्लोक है-
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: ।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संग्ङविवर्जित: ।। (गीता अध्याय-12 श्लोक-18)
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो: ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते ।। (गीता अध्याय-14 श्लोक-25)
        सामान्य भावार्थ को ही समझें तो इन श्लोकों का मतलब है कि बुद्धिमान के लिए न कोई मित्र है और न कोई शत्रु है। न कोई मान है, न कोई अपमान है।
ऐसा कैसे हो सकता है कि न कोई मित्र है और न कोई शत्रु है ? न कोई मान है, न कोई अपमान है ! मित्र तो मित्र होता है, शत्रु तो शत्रु होता है। जो मित्र है, वह शत्रु कैसे हो सकता है और जो शत्रु है, वह मित्र कैसे हो सकता है ? इसी तरह यदि कोई हमें अपमानित करता है तो बुरा लगता है। कोई सम्मान देता है तो अच्छा लगता है। ये कैसे सम्भव है कि न कोई अपमान है और न कोई मान है। गीता में इस श्लोक का अर्थ क्या है ?
एक उदाहरण देखें-
        चाणक्य और राक्षस की शत्रुता विश्वविख्यात है। चंद्रगुप्त के सम्राट बनने के बाद चाणक्य ने महामात्य के पद से सेवा निवृत्त होकर वापस तक्षशिला जाकर अध्यापन कार्य करना चाहा तो चंद्रगुप्त ने पूछा-
"अमात्य ! आपकी अनुपस्थिति में आपका कार्य कौन संभालेगा ? मगध का राज्य, चाणक्य जैसे महामात्य के बिना कैसे चल पाएगा ?"

"राक्षस बनेगा महामात्य ! उससे अधिक योग्य और निष्ठावान कोई दूसरा नहीं है।" चाणक्य ने उत्तर दिया।
"राक्षस ? किन्तु वह तो आपका शत्रु है ?"
"वह मेरा शत्रु नहीं है वरन्‌ वह तो धनानंद का स्वामीभक्त था, जो कि उसका सम्राट था। राक्षस की योग्यता में कोई कमी नहीं थी, सारी कमियाँ नंद में थीं। जब राक्षस तुम्हारा मंत्री बनेगा तो उसकी निष्ठा तुम्हारे प्रति रहेगी"
चंद्रगुप्त को चाणक्य ने समझा दिया लेकिन समस्या यह थी कि राक्षस लापता था। उसको खोजने के लिए चाणक्य ने उसके एक मित्र को सार्वजनिक फाँसी देने की मुनादी करवा दी। राक्षस स्वयं को रोक न सका और अपने मित्र को बचाने के लिए छद्म वेश से प्रत्यक्ष में आ गया। चाणक्य ने राक्षस के मित्र को इस शर्त पर जीवन दान दे दिया कि राक्षस को चंद्रगुप्त का महामंत्री बनना होगा। इसके बाद चाणक्य तक्षशिला चला गया।
        यदि दो मित्र एक ही कार्य क्षेत्र में प्रयास करते हैं। एक को सफलता मिलती है, एक को नहीं मिलती। निश्चित रूप से उनमें ईर्ष्या हो जायेगी और उनमें एक शत्रुता की भावना पनप जायेगी, जिसे अंग्रेज़ी में आजकल नये टर्मिनोलॉजी में 'फ़्रेनिमी' भी कहा जाता है। फ़्रेनिमी यानी कि फ़्रेंड भी एनिमी भी (दोस्त भी और दुश्मन भी)।
एक और उदाहरण-
        उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब और उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब दोनों ही शास्त्रीय गायन में पारंगत थे। दोनों में प्रतिस्पर्द्धा थी। एक प्रकार की अदावत थी। बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब अधिक प्रसिद्ध थे। उनकी आवाज़ में मधुरता अधिक थी। मुग़ल-ए-आज़म फ़िल्म में दिलीप कुमार और मधुबाला पर फ़िल्माये गए यादगार प्रेम-दृश्य में, बड़े ग़ुलाम अली की 'राग सोहनी' में गाई ठुमरी 'प्रेम जोगन बनके' ने उनकी प्रसिद्धि घर-घर में कर दी थी। अमीर ख़ाँ उतने ज़्यादा लोकप्रिय नहीं थे। अमीर ख़ाँ, बड़े ग़ुलाम अली के गायन में अक्सर कमियाँ निकालते रहते थे।
        ख़ुदा-न-ख़ास्ता हुआ ये कि बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ, अमीर ख़ाँ से पहले इंतकाल फ़र्मा गये। कमाल की बात ये देखिए कि अमीर अली ख़ाँ साहब ने गाना ही बन्द कर दिया। लोगों ने उनसे कहा कि अब आप गाते नहीं हैं। आप अब संगीत सभाओं में नहीं जाते। उन्होंने कहा कि 'उसी' को सुनाने के लिए गाता था। अब वही नहीं रहा तो सुनाऊँ किसको। अब आप क्या कहेंगे इसे ? दो लोगों की दोस्ती या दो लोगों की दुश्मनी ?
        जो व्यक्ति दोस्त बनने के क़ाबिल नहीं है तो वह दुश्मन बनाने के क़ाबिल भी नहीं होता और जो दुश्मन बनाने के क़ाबिल नहीं है, वह दोस्त बनने के काबिल भी नहीं होता। जिस तरह दोस्तों का स्तर होता है, उसी तरह से दुश्मनों का भी स्तर होता है।
एक और उदाहरण-
        नेपोलियन बोनापार्ट का एक दुश्मन युद्ध में मारा गया। नेपोलियन ने कहा कि अब मैं वह नेपोलियन नहीं रहा, जो उस दुश्मन के जीवित रहते हुए था। उस दुश्मन के जीवित रहते हुए जिस नेपोलियन को आप जानते थे, वह इस नेपोलियन से बिल्कुल अलग था। हो सकता है कि उसके जीवित रहते हुए मुझे बिल्कुल भिन्न तरीक़े से जीवन जीना होता। अब जब वो इस दुनिया में नहीं है तो मैं बिल्कुल भिन्न तरीक़े से अपना जीवन जीऊँगा। मेरी राजनीतिक महत्वाकांक्षा, मेरे सफल होने की नीतियाँ, सब बदल गईं, भिन्न हो गईं।
अब ज़रा मान-अपमान की बात करें तो अपमान की घटनाओं से इतिहास बदले-बने हैं और प्राचीन कथाओं के प्रसिद्ध प्रसंग भी।
कुछ उदाहरण-
        कौरवों की सभा में कृष्ण का अपमान, द्रौपदी का चीर हरण, हस्तिनापुर की रंगशाला में कर्ण का अपमान, द्रुपद की सभा में द्रोणाचार्य का अपमान, जनक की सभा में अष्टावक्र का अपमान, धनानंद की सभा में चाणक्य का अपमान, अंग्रेज़ों द्वारा महात्मा गांधी का अपमान आदि। ये सभी वास्तविक अपमान थे और इनके प्रतिशोध भी लिए गए और अपमान करने वाले को दंडित भी किया गया।
        यदि हमें कोई सम्मान दे तो अच्छा लगता है लेकिन कोई मूर्ख, धूर्त, विक्षिप्त अथवा लालची व्यक्ति हमें सम्मानित करता है तो हम इस सम्मान को महत्त्व नहीं देते। क्यों...? क्योंकि उस व्यक्ति को हम इस योग्य नहीं समझते कि हम उसका सम्मान स्वीकार करें। ठीक इसी तरह यदि कोई महत्वहीन व्यक्ति हमारा अपमान करे तब भी हमको यह नहीं समझना चाहिए कि हमारा अपमान हुआ।

धनानंद की राजसभा में विष्णुगुप्त (चाणक्य) का अपमान इतिहास और कथाओं में सम्भवत: अपमान से संबंधित सबसे अधिक प्रसिद्ध घटना है। आपको क्या लगता है चाणक्य का अपमान कोई पहली बार हुआ था ? ऐसा नहीं है। एक अनाथ और ग़रीब बालक किन-किन अपमानों को झेलकर बड़ा हुआ होगा ? उनका आभास आसानी से नहीं किया जा सकता है। किन्तु चाणक्य ने उन छोटे और महत्त्वहीन अपमानों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। जब मगध के सम्राट ने भरी सभा में उसका अनादर किया, तब चाणक्य ने इसे अपना अपमान माना और कहते हैं कि प्रतिज्ञा की-
"धनानंद ! जब तक मैं इस अपमान का दंड तुझे नहीं देता, तब तक मैं अपनी शिखा को खुली ही रखूँगा। मेरी शिखा में गांठ तभी लगेगी, जब मैं, चणक पुत्र विष्णगुप्त, तेरा और तेरे वंश का समूल नाश कर दूँगा।"
        जो हमें सम्मानित करे, उस व्यक्ति का कुछ स्तर अवश्य होना चाहिए। हमें एहसास होना चाहिए कि हम सम्मानित हुए। इसी तरह जो हमें अपमानित कर रहा है, उसका भी कुछ स्तर ऐसा होना चाहिए कि हमें एहसास हो कि वह हमें अपमानित कर रहा है। जो व्यक्ति 'किसी' के भी द्वारा अपमान किए जाने से अपमानित हो जाय उस व्यक्ति का कोई स्तर नहीं होता।
एक कहावत-
"A gentleman never insults anyone unintentionally" [भद्रजन, किसी का भी अपमान अनभिप्रेत (अनजाने) नहीं करते]। -'ऑस्कर वाइल्ड'

Prayas - August 2022

                                                                  

Year - 2                            Month - August 2022                Issue - 33

प्यारे बच्चों,

कोई व्‍यक्ति जब कोई पेड़ लगाता है तब वह एक ऐसा कार्य करता हे जिसके द्वारा भावी पीढ़ी लाभाव्नित होगी। और जिसके लिए भविष्‍य में लोग उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करेंगे। हम शत-सहस्‍त्र सुन्‍दर वृक्षों, उनके फल, पत्‍तों एवं फलों को देखकर खुश होते रहते हैं परन्‍तु कभी भी यह नहीं सोचते कि यदि ये वृक्ष न होते तो ये स्‍थान कितने उजड़, नीरव, नीरस एवं भयावह होते। यही भारत की स्‍वतंत्रता के संबंध में भी महसूस होता है

आज 15 अगस्‍त भारत की स्‍वतंत्रता दिवस का महान पर्व है। सन् 1947 में आज के ही दिन भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्ति प्राप्‍त हुई थी। आज के दिन अपने दफ्तरों से , अपने स्‍कूलों से हमें छुट्टी मिलती है क्‍या हम सभी सोचते है कि स्‍वतंत्रता रूपी यह छायादार घना वृक्ष किस प्रकार इतना बड़ा हुआ है? इस पौधे को किसने लगाया था, किन लोगों ने इसकी देखभाल एवं रक्षा की तथा इसमें किन-किन प्रकारों के खाद-पानी दिए गये थें?

सूख जाए न यह पौधा आजादी का

खून से अपने इसलिए इसे तर करते हैं।

भारत की स्‍वतंत्रता के अंकुर 1857 में प्रकट हुए थे स्‍वतंत्रता के उस प्रथम संग्राम को हमारे विदेशी शासकों ने कभी सिपाही-विद्रोही कहा और कभी उसको गदर की संज्ञा प्रदान की तब से लेकर लगातार 90 सालों तक स्‍वतंत्रता के अंकुर की रक्षा ही नहीं की जाती रही। उसको अपने श्रम से रक्‍त, पसीनें से सींचकर विकसित भी किया जाता रहा। आजादी महोत्‍सव के दीवाने इस पौधे को विकसित होते देखकर मस्‍ती से झुम जाते हैं।

आजादी के दिवाने इन स्‍वतंत्रता सेनानियों का स्‍मरण करना, उनके प्रति नतमस्‍तक होना हमारा कर्तव्‍य होना चाहिए। स्‍वतंत्रता की लड़ाई अहिंसा के मार्ग पर चलकर लड़ी अवश्‍य गई थी, परन्‍तु इसका यह मतलब नहीं है कि इस रास्‍ते पर चलने के कारण हमारे सेनानियों के खून की नदियां नहीं बही थी।

स्‍वतंत्रता रूपी इस पेड़ को अपने रक्‍तदान से सींचकर बड़ा करने वाले बलिदानियों की एक लम्‍बी पंक्ति है  नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस, लाल बहादुर शास्‍त्री, महारानी लक्ष्‍मीबाई, टीपू सुल्‍तान बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, सुरेन्‍द्र नाथ बनर्जी, एनी बेसेण्‍ट, एओ ह्यूम, महात्‍मा गाँधी, मोतीलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, जवाहर लाल नेहरू, आदि जिन क्रांतिकारी नवयुवकों ने इस पेड़ के रक्षा के लिए फॉंसी पर झुल गये।

उन्‍होंने अंग्रेजों की गोलियों का बन्‍दूकों का सामना किया उनके नाम तो हम आनंद  के प्रवाह में  प्राय: भूल ही जाते हैं उनमें भगत सिंह, बटुकेश्‍वर दत्त, राज गुरू, मंगल पाण्‍डे, चन्‍द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्‍ला, उधम सिंह आदि के नाम हमारी आंखों के सामने सहज भाव से आ जाते हैं। भारत के इन सपूतों ने अपने जीवन में एक ही तराना गाया था-

सर बांध कफनवा हो, शहीदों के टोली निली,

इन वीरों की एक ही माँग थी- मॉं मेरा रंग दे बसन्‍ती चोला।

इनका एक ही नारा था- इंकलाब जिंदाबाद

यह दिन वास्‍तव में शहीदों के स्‍मरण का अवसर है और साथ-साथ अपनी आत्मा को पवित्र करना का अवसर है। 15 अगस्‍त का दिन हमारा राष्‍ट्रीय त्‍यौहार है लेकिन हम केवल झण्‍डा फहराकर काम चला लेते हैं यह उन लोगों के प्रति कृतज्ञता का द्योतक है जिनके प्रयासों के नतीजों से हम आराम की आजादी का लाभ ले रहे हैं।

आज हम यह संकल्‍प करें हम शपथ ले कि हम अपने देश की स्‍वतंत्रता की रक्षा हमेशा करेंगे और यह हमारा कर्तव्‍य है और इस दिशा में लगातार में प्रयास भी करेंगे अपने देशकी प्रगति, विकास में हिस्‍सेदार बनेंगे। हमें यह बात को अपने जहन में हमेशा रखना चाहिए कि  स्‍वतंत्रता की रक्षा करने के लिए निंरतर जागरूकता अंत्‍यंत आवश्‍यक होती हैं।

शहीदों की चिताओं पर लगेंग हर बरस मेले।

वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशॉं होगा।

धन्यवाद

तुम्हारा  पथ-प्रदर्शक 

धर्मेन्द्र कुमार 

पुस्त्कायाध्यक्ष