Year - 2 Month - November 2022 Issue - 36
प्यारे बच्चों,
प्रकृति कहिए या ईश्वर कहिए, उसने पृथ्वी पर जो कुछ भी पैदा किया उसमें एक उल्लास पूर्ण गति अवश्य दी। मनहूस उदासी या आडम्बरी गंभीरता किसी भी जीव में नहीं दी। यहाँ तक कि वनस्पति में भी एक उल्लास से भरी हुई विकास की गति होती है। सूरजमुखी का फूल सूर्य को ही तकता रहता है और सूर्य जिस दिशा में जाता है उसी दिशा में वह मुड़ जाता है। फूलों की बेल, सहारे तलाश करती रहती हैं और जैसे अपनी बाहें फैलाकर सहारे को पकड़ ऊपर बढ़ती जाती हैं।
आप सड़क से एक पिल्ला उठा लाइये। सारा दिन घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहेगा। कहने का सीधा अर्थ यह है जिसे हम सभी जानते ही हैं कि जीवन का अर्थ ही उत्सव और उल्लास है। प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक बच्चा जन्म से ही नृत्य, गायन, वादन, चित्रकारी, मूर्तिकारी, खेल जैसी आदि प्रतिभाओं से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासा से भरा खोजी स्वभाव प्रत्येक बच्चे का स्वाभाविक गुण होता है। यह स्थिति मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों में भी होती है। मैंने बड़े क़रीब से देखा है ऐसे बच्चों को जिनकी मानसिक क्षमता हटकर होती हैं और जिन्हें हम मानसिक रूप से अविकसित या विशिष्ट रूप से विकसित मानते हैं। इन बच्चों में भी प्रसन्नता और उल्लास का भाव भरपूर होता है।
समस्या तब शुरु होती है जब धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगता है तो अधिकतर माता-पिता (या अन्य अभिभावक) उसकी इन प्रतिभाओं को बड़े गर्व के साथ समाप्त करने में लग जाते हैं। इसमें स्कूल भी अपनी भूमिका बख़ूबी निबाहता है। अधिकतर स्कूलों में शिक्षा जिस तरीक़े से दी जा रही है वह बेहद शोचनीय अवस्था है। पढ़ाई में सृजनात्मकता जैसा कुछ भी नहीं होता। उन्हें वह नहीं सिखाया जाता जोकि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और वे स्वयं अपनी सफलता का रास्ता चुन सकेंगे बल्कि उनको एक पारंपरिक तरीक़े की पढ़ाई दी जाती है जिससे वे कुछ नया करने की बजाय ख़ुद को किसी न किसी जॉब के लायक़ बनाने में लग जाते हैं।
महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा भी है कि स्कूलों में बच्चों को ‘क्या सोचा जाय सिखाने की बजाय कैसे सोचा जाय’ यह सिखाना चाहिए। इस आउटडेटेड उबाऊ शिक्षा पद्धिति के कारण बच्चों के भीतर की उमंग और उल्लास ख़त्म होने लगता है। ओढ़ी हुई गंभीरता मनहूसियत भरी उदासी उनका स्थाई स्वभाव बन जाता है। बच्चों को यह मौक़ा ही नहीं दिया जाता वे जान सकें कि उनमें कौन सी विशेष प्रतिभा है। बच्चों की मार्कशीट ही उनकी योग्यता की पहचान बन जाती है।
ज़रा बताइये कि मैंने कॅलकुलस, ट्रिगनोमॅट्री, वेक्टर, प्रॉबेबिलिटी आदि की पढ़ाई की… वह मेरे किस काम आ रही है… किसी काम नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गणित मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन मुझे उन विषयों या क्षेत्रों को छेड़ने का मौक़ा ही नहीं मिला जो मेरे प्रिय हो सकते थे या उनमें से कोई एक मेरा पॅशन बन सकता था।
व्यवसाय में पिता अपने वारिस को सिखाता है कि बेटा-बेटी जितनी ज़्यादा मनहूसियत भरी गंभीरता तुम ओढ़े रहोगे तुमको उतना ही बड़ा बिजनेसमॅन समझा जाएगा। सरकारी कार्यालय में चले जाएँ तो ऐसा लगता है कि यहाँ अगर ज़ोर से हँस पड़े तो शायद छत ही गिर पड़ेगी क्योंकि उस छत ने कभी हंसी की आवाज़ सुनी ही नहीं (सुबह-सुबह सफ़ाई कर्मचारी ही शायद हँसते हों)। आलम ये है कि ओढ़ी हुई गंभीरता एक संस्कृति बन चुकी है। अब न तो इस मनहूस संस्कृति को क्या नाम दिया जाय यह समझ में आता और इसको ख़त्म करने का उपाय ही।
एक सामान्य शिष्टाचार है कि किसी अजनबी से आपकी नज़र मिल जाय तो हल्का सा मुस्कुरा दें। यह शिष्टाचार यूरोपीय देशों में बहुत आम है। हमारे देश में यदि आप किसी अजनबी को देखकर मुस्कुरा गए और यदि वो लड़की हुई तो सोचेगी कि आप उसे छेड़ रहे हैं और यदि कोई लड़की किसी अजनबी लड़के को देखकर मुस्कुरा गई तो लड़का समझेगा कि यह प्रेम का निमंत्रण है।
क्या आपको नहीं लगता कि ये सब बातें स्कूल में सिखाई जानी चाहिए? मेरी आज तक यह समझ में नहीं आया कि स्कूल में बच्चों को घर का काम करना क्यों नहीं सिखाया जाता। जैसे; चाय-बिस्किट-नाश्ता बनाना, कपड़े तह करना, कपड़े इस्तरी करना, शारीरिक सफ़ाई, माता-पिता से व्यवहार, कील-चोबे लगाना, कपड़ों में बटन लगाना, छोटे बच्चे की देख-भाल करना, बाग़वानी, आदि-आदि। इसके अलावा ‘डू इट योरसेल्फ़’ की बहुत सी चीज़ें सिखाई जानी चाहिए, ज़रूरतमंद लोगों की मदद क्यों, कब और कैसे करें यह उनके स्वभाव में आना चाहिए। यह सब लड़की-लड़कों को समान रूप से सिखाना चाहिए। खाना बनाना लड़कों को भी आना चाहिए। कामकाजी पति-पत्नी के घर में दोनों ही लगभग सभी काम करते हैं। ये सब बच्चों को स्कूल में सिखाया जाना चाहिए। कुछ व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा और कुछ विडियो दिखाकर।
यह तो ठीक है कि हम बच्चों को महान व्यक्तियों के बारे में बताकर उन्हें अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि छोटे बच्चे घर के कामों में अपनी माता-पिता की मदद करके भी महान बनते हैं। उनको पता होना चाहिए कि यदि वे काम पर जाने से पहले अपने पिता की साइकिल-बाइक-कार को पोंछ देंगे तो यह कितना बड़ा काम होगा। रसोई में मां का हाथ बटाएँगे तो उनके द्वारा किया काम कितना महत्वपूर्ण होगा।
ज़रूरत तो इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल, कॉलेज में कुछ विषय अलग से पढ़ाए जाने चाहिए। जिनसे छात्राओं और छात्रों को अच्छा इंसान बनने में मदद मिले। ‘संस्कृति’ एक अलग विषय होना चाहिए और इस विषय के अधीन सब-कुछ सिखाना चाहिए।
धन्यवाद
आपका पथ-प्रदर्शक
धर्मेन्द्र कुमार
पुस्त्कायाध्यक्ष
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